कट्टरता की राजनीति दीमक की तरह देश को खोखला कर देती है

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बाबतपुर (वाराणसी) : कट्टरता इंसानियत को मार देती है। यह दीमक है, जो अंदर से खोखला करती है। कट्टरता को प्रचारित-प्रसारित करने के पीछे प्रायः कट्टरपंथी ताकतों के अपने स्वार्थ होते हैं। यह जमात के प्रभुओं के वर्चस्व की लड़ाई है, धर्म की नहीं।

राजनीतिक नेतृत्व के स्तर पर तो यह विशुद्ध ओढ़ी हुई (कट्टरता) होती है। ये नेतृत्वकर्ता वैचारिक स्तर पर कतई कट्टर नहीं होते हैं। वे सिर्फ़ और सिर्फ़ अवसरवादी होते हैं।

यही कारण है कि वे ही जिन्ना, जो कभी दावा करते थे कि हिन्दू-मुस्लिम कभी एक साथ नहीं रह सकते और हिंदू-मुस्लिम दो अलग-अलग राष्ट्र हैं, बाद में पाकिस्तान बन जाने पर, वहां सभी धर्मों के प्रति सद्भाव अपनाए जाने की वकालत करते हुए पाए जाते हैं। क्योंकि उनका उद्देश्य सिर्फ़ निष्कंटक सत्ता प्राप्ति था।

यह भी एक दिलचस्प बात है कि इन्हीं जिन्ना का शुरुआती जीवन हिंदू-मुस्लिम एकता के लिए समर्पित था। बिलकुल सावरकर या अल्लामा इकबाल की तरह। याद करिए कभी जिन्ना के लिए सरोजनी नायडू ने, उन्हें हिंदू-मुस्लिम एकता का एंबेसडर कहा था।

जिन्ना निजी जिंदगी में पाश्चात्य संस्कृति को अंत तक जीते रहे। जिस धार्मिक उन्माद के लिए वह जाने जाते थे, वह व्यक्तिगत जीवन में अनुपस्थित था। जो मंचों पर था, वह जीवन में नहीं था।

पाकिस्तान के निर्माण के समय जिन्ना ने धूर्तता के सारे रिकॉर्ड तोड़े।

वहीं दूसरी तरफ श्यामा प्रसाद मुखर्जी मुस्लिम लीग के साथ सरकार में थे। मुस्लिमों से इतनी नफ़रत और उन्हीं के साथ गलबहियां!! यह सब क्या है?

ज़ाहिर है यह मौकापरस्त राजनीति थी। आज भी दिनरात कट्टरता को परोसने वाले नेता यही सब करते घूमते हैं। वे कब किसके यहां बिरयानी खाने पहुंच जाएं, कब अब्दुल से अपना याराना के किसी गढ़ने लगें और कब उनसे खतरे दिखाने लगें, कुछ कहा नहीं जा सकता। इसलिए इनकी कट्टरता ओढ़ी हुई है। ये कट्टर नहीं है। कभी कश्मीर की महबूबा देशभक्त लग सकती है, तो कभी नहीं भी।

राजनीति में महबूबाएं बदलती रहती हैं। कभी वो दिल के करीब होती हैं, तो कभी दूर और गद्दार। पर अंधानुयायियों को फिर भी कुछ नहीं दिखता। असली कट्टर तो ये अंध अनुयायी होते हैं, जो वैचारिक रूप से जड़ होते हैं।

वस्तुतः ये मानव भेड़ें होती हैं, जिन्हें खुश करने के लिए उनके हांकने वालों के द्वारा कभी-कभार जनता कह दिया जाता है। ऐसे लोगों में वैचारिक जड़ता को दृढ़ता से पोषित किया जाता है। विवेक को लकवाग्रस्त करने के लिए नफ़रत का जहर इंजेक्ट किया जाता है।

यह जड़ता, यह धर्मांधता धर्मानुराग के नाम पर पोषित की जाती है। धर्म के नाम पर उन्मादी राह चलने वाली भीड़ विवेक विरोधी होती है। नेताओं द्वारा उसे जज़्बाती बनाया जाता है। जेहादी बनाया जाता है।

चाहे मुस्लिम कट्टरपंथी हों या हिंदू कट्टरपंथी ये सब के सब मानसिक रूप से बधिया हो चुके होते हैं। इनको विमर्श पसंद नहीं। ये हिंसा को जीने लगते हैं। एक धर्म की कट्टरता/असहिष्णुता दूसरे के लिए खादपानी का काम करती है।

जब एक की धार्मिक श्रेष्ठता की वृत्ति अलगाव को मजबूत करके सामाजिक सद्भाव की हत्या करती है, तो ऐसे में दूसरा पक्ष भी उसी राह चलने लगता है।

खुद से प्रेम करने के लिए दूसरों से नफ़रत करना जरूरी है क्या? अपने धर्म को मजबूत करने के लिए क्या दूसरे से नफ़रत जरूरी है?

अब तक ईश्वर को समझ नहीं पाए और उसके रक्षक बने घूमते हैं। कृष्ण बिहारी नूर साहब लिखते हैं-

“जिसके कारण फ़साद होते हैं

उसका कोई अता-पता ही नहीं”

दंगों में प्रभावित घर वालों का हाल जानने कोई नहीं आता। बाद में उनको उनके हाल पर छोड़ दिया जाता है। वे जीवन भर जख्मों को भोगने के लिए अभिशप्त होते हैं।

नेतृत्व के स्तर पर कट्टरपंथी ताकतों के पीछे एक लिजलिजापन होता है। एक मौकापरस्ती होती है।

शातिर नेतृत्व दूसरों के बच्चों को तो कट्टरता की खुराक नियमित देता है, लेकिन अपने बच्चों को इस शिक्षा से दूर रखता है। अरे भाई धर्म रक्षा के यज्ञ से अपने बेटों को दूर रखकर उनका परलोक क्यों नहीं संभालते? संवरा हुआ इहलोक अपने बच्चों के लिए और परलोक की कल्पना लोक आम लोगों के बच्चों के लिए।

सांप्रदायिक या जातीय गोलबंदी को पुख़्ता करने के लिए “भय की राजनीति” का खेल खेला जाता है। यह अटूट ध्रुवीकरण के लिए अचूक दांव है। स्वतंत्रता आंदोलन के समय मुस्लिम कट्टर पंथियों ने हिंदुओं के खिलाफ इस दांव का इस्तेमाल किया, तो अब वहीं दांव हिंदू कट्टरपंथी भी खेल रहे हैं।

ये शातिर लोग होते हैं। इनका धार्मिक सुधारवाद से कोई लेना देना नहीं। ये विभाजनकारी क्रियाकलापों और लैंगिक असमानता के मामलों में यथास्थितिवादी होते हैं।

यही धूर्तता तथाकथित आधुनिक समाजवादी नेताओं में भी पाई जाती है। वह समाजवाद को गाते हैं, लेकिन खुद में एक पूंजीवादी संस्था हो जाते हैं। उनके बच्चे विदेशों में पढ़ते हैं। सर्वहारा वर्ग नारों की विषयवस्तु है, नीतियों के केंद्र में तो पूंजीपतियों के हित हैं। अजीब राष्ट्रीयता का गायन है।

राजनीति के इस चरित्र को समझने की जरूरत है।

प्रोफेसर राहुल सिंह (अध्यक्ष)
उत्तर प्रदेश वाणिज्य परिषद

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