बाबतपुर (वाराणसी) : हमें पहले यह समझना ज़रूरी है कि शिक्षा के व्यावसायीकरण और निजीकरण में अंतर है. शिक्षा पर सार्वजनिक धन खर्च करने के प्रति सरकार के रवैये को ध्यान में रखते हुए कुछ हद तक शिक्षा के निजीकरण को समझा जा सकता है. लेकिन, शिक्षा के व्यावसायीकरण का तो कड़ा विरोध किया जाना चाहिए. शिक्षा के व्यावसायीकरण का अर्थ, लाभ को बढ़ाने के एकमात्र उद्देश्य के साथ स्कूल खोलना या कॉर्पोरेट कंपनियों के रूप में काम करते हुए शिक्षा प्रदान करना है।
शिक्षा में यह कॉर्पोरेट संस्कृति अब भारत में बहुत तेज़ी से फैल रही है. पिछले पांच वर्षों के दौरान खोले गए सभी प्री-स्कूलों में से लगभग 99% विशुद्ध रूप से व्यावसायिक उद्यम हैं. कई शिक्षाविदों ने उन्हें “एजुकेशन शॉप या शिक्षा की दुकान” की संज्ञा दी है।
शिक्षा का व्यावसायीकरण न सिर्फ़ शिक्षा के मूल्यों और शिक्षण की भावना के विरुद्ध है बल्कि यह तो भारत के संविधान के भी खिलाफ है. एक्सपर्ट्स कहते हैं कि मूल रूप से, “राइट टू एजुकेशन या शिक्षा का अधिकार” (RTE) को भारत के संविधान में एक मौलिक अधिकार के रूप में रखा गया था. हालांकि, बाद में यह राज्य के नीति निदेशक तत्वों का हिस्सा बन गया।
नीति निर्देशक तत्वों के अनुच्छेद 14 के अनुसार “14 साल की उम्र तक मुफ्त शिक्षा प्रदान करना सरकार का कर्तव्य है.” आरटीई में इसी बात पर ज़ोर दिया गया है, जो कि संसद द्वारा पारित एक अधिनियम है. इस प्रकार, इस अधिनियम के अनुसार, 14 वर्ष से कम आयु के प्रत्येक बच्चे को शिक्षा का अधिकार है. लेकिन शिक्षा का व्यावसायीकरण इस एक्ट का विरोधाभासी है या कह सकते हैं कि आरटीई की मूल भावना का उल्लंघन करता है।
सामाजिक न्याय की अवधारणा के खिलाफ
भारतीय समाज सामाजिक स्थिति और आय के वितरण के मामले में बहुत ही असमान है. इसलिए, शिक्षा का व्यावसायीकरण इस असमानता को और बढ़ा देगा और हाशिए के वंचित समुदायों के गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्राप्त करने में बाधा बनेगा. उस स्थिति में सामाजिक बराबरी या सामाजिक न्याय प्राप्त नहीं किया जा सकता है जहाँ समाज का एक बड़ा वर्ग गुणवत्तापूर्ण शिक्षा से दूर हो।
इसके अलावा शिक्षा का व्यवसायीकरण विभिन्न मानकों और शिक्षा संस्थानों की श्रेणियों के रूप में शिक्षा प्रणाली में कई परतें पैदा करेगा. दुर्भाग्य से, ये परतें सार्वजनिक वित्त पोषित स्कूलों में भी मौजूद हैं. उदाहरण के लिए, केंद्रीय विद्यालय व उच्च शैक्षणिक मानकों वाले स्कूल और राज्य सरकार द्वारा संचालित स्कूल, सभी के पास शिक्षा, अकादमिक उत्कृष्टता और उपलब्धि के अलग अलग मानक हैं. इसके अलावा, पहले इनमें से कई स्कूल एकल शिक्षकों के साथ चलाये जाते रहे हैं।
सार्वजनिक वित्त पोषित स्कूलों में इस तरह का वर्गीकरण मौजूद है. हालांकि, निजी स्कूलों में और भी परतें देखी जा सकती हैं. उदाहरण के लिए, फैशनेबल स्कूल समाज के संपन्न वर्ग की ज़रूरत को पूरा करते हैं. दूसरी ओर, दलितों के लिए बने स्कूल बुनियादी ढांचे और गुणवत्ता में खराब हैं. कई मामलों में तो यह सरकारी स्कूलों से भी बदतर हैं. इसलिए, व्यावसायीकरण ने शिक्षा प्रणाली में अलग-अलग वर्ग और कई पर्तों को बनाने का काम किया है।
बेहतर बुनियादी ढांचे और बेहतरीन शिक्षकों से शिक्षा प्राप्त करने वाले छात्र अकादमिक उत्कृष्टता प्राप्त करते हैं, जबकि जिन छात्रों की अच्छे स्कूलों तक पहुंच नहीं है, उन्हें अकादमिक प्रगति हासिल करने के लिए कई तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ता है. यह असमानता एक दुष्चक्र पैदा करती. यदि 10 प्रतिशत संपन्न वर्ग को बेहतर सुविधाएं प्राप्त हों, तो उस समूह के बच्चों को ही अच्छी शिक्षा का लाभ भी मिलेगा।
समानता और सार्वभौमिकरण के खिलाफ
हमें समाज में बराबरी लाने के लिए सभी छात्रों को समान अवसर उपलब्ध कराना चाहिए. यह स्थिति कई विकसित देशों में उपलब्ध कराई जा रही है. हालांकि, भारत जैसे विकासशील देश में हमारी सरकार सभी बच्चों के लिए समान शैक्षिक अवसर प्रदान नहीं कर रही है।
शिक्षा का व्यावसायीकरण शिक्षा के सार्वभौमिकरण के भी खिलाफ जाता है: हमारे संविधान की भावना और विभिन्न शिक्षा आयोगों की रिपोर्ट और सुझावों का सार यह है कि शिक्षा को सार्वभौमिक बनाया जाना चाहिए.
विभिन्न आयोगों ने इसे लागू करने की समय सीमा भी दी, लेकिन हमारे देश में शिक्षा का सार्वभौमिकरण अभी भी एक सपना ही है. अभी भी अलग अलग तरह के स्कूल मौजूद हैं।
उच्च वर्ग और क्रीमी लेयर अपने बच्चों को अच्छे शिक्षा मानकों और सुविधाओं से सम्पन्न एलीट स्कूलों में भेजते हैं. इसके विपरीत, निम्न मध्यम वर्ग और गरीब उन एलीट स्कूलों की बेतहाशा महंगी फीस से डरते हैं. इसलिए, वे इन स्कूलों को वहन नहीं कर सकते हैं और अपने बच्चों को निम्न मानकों और कम सुविधाओं वाले निजी स्कूलों में भेजते हैं. इस प्रकार, शिक्षा का सार्वभौमिकरण प्राप्त नहीं किया जाता है।
समाज में विभाजन पैदा करना
माता-पिता की आय के आधार पर समाज में स्कूलों के विभिन्न प्रकार मौजूद हैं. उसके अनुसार ही, बच्चे निजी स्कूलों या व्यावसायिक स्कूलों में जाते हैं. इसलिए, ये व्यवसायिक स्कूल समाज में वर्ग विभाजन को मज़बूत कर रहे हैं।
ये वर्ग व्यवस्था के साथ-साथ जाति व्यवस्था को भी मजबूत कर रहे हैं. क्योंकि उच्च जाति के छात्रों के पास बुनियादी और उच्च शिक्षा के बेहतर अवसर होते हैं, वे उच्च मानकों वाले स्कूलों में जाते हैं लेकिन सामाजिक और आर्थिक रूप से वंचित समुदायों और अल्पसंख्यकों के छात्र ऐसे स्कूलों में नहीं जा सकते हैं, उन्हें कम सुविधाओं वाले स्कूलों में शिक्षा प्राप्त करना पड़ता हैं.
यह माहौल वर्ग और जाति व्यवस्था को और गहरा और मज़बूत बना रहा है. शिक्षा के व्यावसायीकरण को छात्रों के लिए घेटो का भी निर्माण करता है. विशेष रूप से अल्पसंख्यक समुदाय के छात्रों के लिए. यह स्थिति लम्बे समय तक चलना बहुत खतरनाक है क्योंकि घेटो का बनना न्यायसंगत और न्यायपूर्ण समाज बनाने में बाधा पैदा करेगा।
जनकल्याण विरोधी
कल्याणकारी सरकार या राज्य के आवश्यक कर्तव्यों में से एक कर्तव्य है अपने सभी नागरिकों को सस्ती शिक्षा प्रदान करना. कई देशों में, प्राथमिक शिक्षा सार्वजनिक रूप से वित्त पोषित है. नतीजतन, एक करोड़पति और कम कमाई वाले नागरिक का बच्चा एक ही तरह के स्कूल में जाता है. यह कई विकसित देशों में सामान्य आदर्श है, लेकिन भारत में ऐसा नहीं है. इसका सीधा सा कारण यह है कि सरकार स्कूलों के स्तर सुधारने में कोई दिलचस्पी नहीं ले रही है।
इसके अलावा, शिक्षा के क्षेत्र में सार्वजनिक खर्च में भारी कमी आई है. कई आयोगों ने सिफारिश की थी कि सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का 6% शिक्षा के लिए आवंटित किया जाए, लेकिन यह सिर्फ एक नारा ही रहा, उस दिशा में ईमानदारी से प्रयास नहीं किये गए।
एनईपी (नई शिक्षा नीति) 2020 में भी सरकार ने कई अच्छे कार्यक्रमों की योजना बनाई है, लेकिन दुर्भाग्य से शिक्षा के क्षेत्र में न तो पर्याप्त धनराशि निर्धारित की गई है और न ही कोई समयबद्ध कार्यक्रम. यह केवल शिक्षा के व्यावसायीकरण के कारण हो रहा है, और सरकार धीरे-धीरे शिक्षा की ज़िम्मेदारी से हटना चाह रही है।
कॉरपोरेटीकरण
यह देखा गया है कि कई बड़े ब्रांड शिक्षा के विशाल बाजार में प्रवेश कर रहे हैं. प्री-स्कूल के क्षेत्र में कई बड़े कॉर्पोरेट घरानों ने अपने ब्रांड लॉन्च किए हैं. बहुत जल्द, निजी स्कूलों के बाज़ार में भी बाढ़ आ जाएगी।
कॉरपोरेट घराने शिक्षा के मार्किट में प्रवेश कर रहे हैं क्योंकि यह स्वास्थ्य क्षेत्र के बाद मार्केट साइज़ में दूसरा सबसे बड़ा क्षेत्र माना जाता है. इसलिए यदि कोई सरकार या समाज शिक्षा को एक वस्तु या बाज़ार के रूप में देखता है, तो वह समाज प्रगति नहीं कर सकता।
यदि भारत ज्ञान के क्षेत्र में अग्रणी बनना चाहता है तो इसके लिए हमें शिक्षा में अपने कार्यक्रमों पर पुनर्विचार करने की ज़रूरत है, खासकर प्राथमिक शिक्षा के क्षेत्र में, 10+2 तक. साथ ही सरकार को इस क्षेत्र में अधिक से अधिक धन का निवेश करना चाहिए ताकि सामाजिक न्याय और सामाजिक समानता हासिल की जा सके.
इन सबसे पहले, सरकार को सभी छात्रों के लिए एक समान अवसर व सुविधाएं प्रदान करना चाहिए ताकि उचित सुविधाओं से प्रतिभाशाली छात्रों को भी ठीक प्रकार से पोषित किया जा सके. उचित सुविधाओं, उचित शिक्षा और उचित मार्गदर्शन वाले ये छात्र शिक्षा के क्षेत्र में भी उत्कृष्टता प्राप्त कर सकते हैं और राष्ट्र और समाज में योगदान दे सकते हैं।
डॉ राहुल सिंह (निर्देशक)
राज ग्रुप ऑफ़ इंस्टिट्यूशन वाराणसी
