तिरंगे के साये में तंज- जब देशभक्ति के मायने मज़हब से तय होने लगे

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प्रोफेसर राहुल सिंह (अध्यक्ष) उत्तर प्रदेश वाणिज्य परिषद

बाबतपुर (वाराणसी) : भारतीय सेना की वर्दी, केवल कपड़े नहीं होती- वह एक प्रतीक है: निष्ठा, बलिदान और मातृभूमि के प्रति अदम्य प्रेम का प्रतीक। जब कोई सैनिक वर्दी पहनता है, तो वह न जाति का प्रतिनिधि होता है, न मज़हब का और न ही लिंग का। वह होता है सिर्फ़ भारत माता का सपूत। और जब कोई बेटी उस वर्दी को धारण करती है, तो वह नारी नहीं रहती- वह भारत की रक्षा पंक्ति बन जाती है, हर सरहद पर खड़ी एक मज़बूत दीवार, एक निर्भीक प्रहरी।

ऐसी ही एक बेटी हैं- कर्नल सोफिया कुरैशी। वो नाम, जिसने भारतीय सेना में नारी शक्ति का परचम लहराया; वो नाम, जिसने अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भारत का सर गर्व से ऊंचा किया। वह पहली भारतीय महिला अधिकारी बनीं, जिन्होंने यूनाइटेड नेशन्स मिशन में सैन्य टुकड़ी का नेतृत्व किया। उनका नाम इतिहास में दर्ज हो चुका है- एक ऐसी कहानी के रूप में, जो हिम्मत, हुनर और हिंदुस्तानियत की मिसाल है।

मगर अफ़सोस- वही नाम आज एक सियासी ज़ुबान की ज़हर भरी गोली का निशाना बन गया। एक मंत्री की ओर से किया गया अपमानजनक, पूर्वाग्रहपूर्ण और असंवैधानिक बयान न केवल कर्नल सोफिया कुरैशी का अपमान है, बल्कि पूरी भारतीय सेना, उसकी वर्दी और उन संवैधानिक मूल्यों का अपमान है जिनके लिए हमारे शहीदों ने जान दी है। यह महज़ शब्दों की चूक नहीं, बल्कि एक मानसिकता का प्रतिबिंब है- वह मानसिकता जो नाम देखकर सम्मान देती है, वर्दी देखकर नहीं; जो मज़हब देखकर देशभक्ति का आंकलन करती है, बलिदान देखकर नहीं।

यह टिप्पणी, केवल एक महिला अधिकारी पर नहीं, बल्कि भारत के उस विचार पर हमला है जो समानता, गरिमा और समावेशिता को अपने अस्तित्व का आधार मानता है। यह हमला उस भरोसे पर है जो देश की हर बेटी, हर अल्पसंख्यक नागरिक और हर ईमानदार सिपाही को होना चाहिए- कि उनका कर्तव्य, उनका समर्पण और उनकी देशभक्ति कभी शक के घेरे में नहीं आएगी।

कर्नल सोफिया कुरैशी: वर्दी में लिपटी एक हिम्मत की दास्तान

कर्नल सोफिया का सफ़र एक आम भारतीय लड़की का सफ़र नहीं था। गुजरात के एक मध्यमवर्गीय परिवार से निकलकर सेना की वर्दी तक का यह रास्ता चुनौतियों से भरा था। उन्होंने न केवल सेना की यूनिट्स की कमान संभाली, बल्कि अंतरराष्ट्रीय मिशनों में भारत का नेतृत्व भी किया। उन्होंने साबित किया कि सेवा, समर्पण और शौर्य का कोई मज़हब नहीं होता।

उनकी कहानी भारत के उस सपने को जीती है जिसमें किसी भी मज़हब, जाति या लिंग से ताल्लुक रखने वाला व्यक्ति इस देश की सेवा कर सकता है- बिना किसी भय, पक्षपात या अपमान के। वह सपना जिसमें ‘भारत माता की जय’ कहने के लिए नाम की ज़रूरत नहीं, नीयत की ज़रूरत होती है।

जब सत्ता की ज़ुबान ज़हर उगले

सत्ता के प्रतिनिधि जब बोलते हैं, तो वह केवल व्यक्तिगत राय नहीं होती- वह उस कुर्सी की भाषा होती है जिस पर संविधान ने उन्हें बैठाया है। जब कोई मंत्री एक महिला अधिकारी के नाम पर ज़हर उगलता है, तो वह संविधान की आत्मा को चीर देता है। यह घटना महज़ असंवेदनशीलता नहीं, यह सत्ता द्वारा संवैधानिक मूल्यों की सार्वजनिक अवहेलना है।

यह टिप्पणी केवल एक अपमानजनक वक्तव्य नहीं, बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए एक खतरनाक नज़ीर बन सकती है। इससे यह संदेश जाता है कि अगर आपका नाम ‘सोफिया’ है, तो आपकी देशभक्ति हमेशा संदिग्ध रहेगी; अगर आपकी पहचान बहुसंख्यक की परिधि में नहीं आती, तो आपका योगदान कभी पर्याप्त नहीं होगा।

क्या नाम देखकर वर्दी की इज़्ज़त घट जाती है?

क्या यह वही देश है जिसने अब्दुल हमीद को वीर चक्र दिया था? क्या यह वही मुल्क है जिसने अशफ़ाक़ उल्ला खां को फांसी पर चढ़ते हुए गर्व से याद किया? फिर क्यों आज एक ‘सोफिया’ नाम देशभक्ति के मापदंड से कमतर माना जा रहा है? यह सवाल केवल अल्पसंख्यकों का नहीं, हर उस भारतीय का है जो अब भी संविधान को अपना धर्म मानता है, और तिरंगे को अपनी पहचान।

यह बयान पितृसत्ता, साम्प्रदायिकता और संकीर्णता की मिली-जुली गूंज है- एक ऐसी गूंज जो महिलाओं को एक तयशुदा ढांचे में देखना चाहती है, जो बलिदान को पहचान से तौलती है, और जो भारत को संकीर्णता की अंधेरी गली में धकेल देना चाहती है।

माफ़ी नहीं, निष्कासन चाहिए

इस पूरे घटनाक्रम को कुछ लोग “बयान की चूक” या “अनजाने में हुई भूल” करार देकर दबाने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन यह कोई चूक नहीं, बल्कि सोच की दरार है- एक ऐसी दरार जो समाज को बांटती है, सेना की गरिमा को धूमिल करती है और संविधान के स्तंभों को हिला देती है।

ऐसे व्यक्ति को संवैधानिक पद पर बने रहने का कोई नैतिक अधिकार नहीं। माफ़ी, एक भद्दे मज़ाक की तरह लगती है जब तक उसके साथ जवाबदेही और दंड की कार्रवाई न हो। अब वक्त है कि सरकार उदाहरण पेश करे- ऐसा उदाहरण जिससे यह स्पष्ट हो जाए कि भारत किसी भी नागरिक की गरिमा की रक्षा के लिए प्रतिबद्ध है, चाहे वह किसी भी मज़हब, जाति, लिंग या पहचान से ताल्लुक रखता हो।

क्या यह समाज का पतन नहीं है?

यदि हम अब भी चुप रहे, तो आने वाला कल शायद उन बेटियों के लिए और कठिन होगा जो वर्दी पहनने का सपना देखती हैं। वे हर बार सोचेंगी- क्या मेरा नाम मेरी नीयत पर भारी पड़ जाएगा? क्या मेरा मज़हब मेरी देशभक्ति को संदिग्ध बना देगा? क्या मेरी पहचान मेरी प्रतिबद्धता से बड़ा बन जाएगी?

हम एक ऐसे दौर में पहुंच रहे हैं जहां वर्दी को नहीं, नाम को देखा जा रहा है; जहां सेवा नहीं, पहचान तौली जा रही है; जहां संविधान की जगह नफ़रत की दीवारें ऊँची हो रही हैं।

जनता की पुकार: अब बहुत हो चुका

देश की जनता अब और चुप नहीं है। सड़कों पर, सोशल मीडिया पर, संसद से लेकर पंचायतों तक- आवाज़ें उठ रही हैं। यह आवाज़ें केवल एक महिला अधिकारी के सम्मान की नहीं, बल्कि उस भारत के भविष्य की हैं जो तिरंगे में हर रंग को बराबर मानता है। ये आवाज़ें कह रही हैं- अब माफ़ी नहीं, इंसाफ़ चाहिए। और वो भी बिना देर, बिना शर्त के।

आख़िर में एक सवाल- क्या सरकार हर संतान के साथ खड़ी है?

आज जब कर्नल सोफिया कुरैशी जैसे नाम को अपमानित किया जाता है, तो सवाल केवल उनकी नहीं, बल्कि पूरे राष्ट्र की आत्मा का है। क्या सरकार हर उस नागरिक के साथ खड़ी है जो तिरंगे को सलाम करता है? या फिर अब देशभक्ति भी ‘फ़िल्टर’ होकर देखी जाएगी?

अगर सरकार चुप रही, तो उसकी यह चुप्पी भी एक अपराध होगी- और यह अपराध इतिहास में दर्ज होगा, एक ऐसी विरासत के रूप में जिसे आने वाली नस्लें कभी माफ़ नहीं करेंगी।

इसलिए आज ज़रूरी है- आवाज़ बुलंद की जाए। गरिमा की रक्षा हो। कर्नल सोफिया कुरैशी को केवल सम्मान नहीं, वह स्थान मिले जो हर भारतीय सिपाही का हक़ है- बिना किसी पहचान, बिना किसी पूर्वाग्रह के।

क्योंकि अगर आज हम नहीं बोले, तो कल कोई भी आपकी बेटी, बहन या मां को सिर्फ़ नाम देखकर अपमानित करेगा- और तब हमारी यह चुप्पी हमारी सबसे बड़ी शर्म होगी।

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