संविधान पर भारी मनुवादी विधान

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प्रोफेसर राहुल सिंह अध्यक्ष) उत्तर प्रदेश वाणिज्य परिषद

बाबतपुर (वाराणसी) : डॉ. भीमराव अंबेडकर ने शायद ही सोचा था कि मेरे अनुयायी मेरी बात को समझने के बजाय केवल “जय भीम” का जय-जयकार करने लगेंगे। वे समझ ही नहीं पा रहे हैं कि जय गोपाल, जय श्रीराम, जय माताजी या जय भीम-ये सभी मनु की परंपरा के परिचायक हैं।

भारतीय समाज में पिछड़ों और दलितों की दशा में सुधार के लिए समाज के परंपरागत स्थापित वर्गों से कड़ा संघर्ष करते हुए संविधान सभा में पहुंचने के बाद दिन-रात परिश्रम करके डॉ. अंबेडकर ने संविधान का मसौदा तैयार करने में सफलता हासिल की थी। अपने जीवनभर के लंबे संघर्ष के बाद 26 नवंबर 1949 को उन्होंने राहत की सांस ली थी।

बेहद अफसोसजनक बात है कि हमारे देश में 75 वर्षों से लागू संविधान आज भी महज एक राजकीय दस्तावेज बनकर रह गया है। कहने को हमारा संविधान विश्व का सबसे बड़ा और समृद्ध लिखित संविधान है, परंतु मनु के विधि-विधान से संचालित भारतीय समाज की जकड़न ऐसी है कि आज भी भारतीय समाज में कहीं भी राज्य के नीति-नियम प्रभावी नजर नहीं आते।
राजनीतिक विज्ञान के अनुसार, समाज के सामने राज्य की वैसे भी कोई बड़ी हैसियत नहीं होती, क्योंकि राज्य समाज का अंग मात्र होता है।

भारत का सबसे बड़ा दुर्भाग्य यह है कि इस देश का संविधान भले ही अंबेडकर ने अपने ढंग से बनाया हो, परंतु इस संविधान की व्याख्या करने का सम्पूर्ण कार्य आज भी मनु के कट्टर समर्थकों के हाथों में है। तभी तो राजस्थान उच्च न्यायालय की जयपुर पीठ के सामने खड़ी मनु की प्रतिमा, न्यायपालिका से संवैधानिक न्याय की अपेक्षा लेकर आने वालों को ठेंगा दिखा रही है।

भारत के पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने भी बीते वर्षों में इस मामले में अपनी गहरी चिंता व्यक्त की थी कि हमारी न्यायपालिका में दलितों और पिछड़ों का प्रतिनिधित्व न के बराबर है।

गौरतलब है कि मनु का विधान हजारों वर्षों से इस देश के खून में घुला हुआ है, जिसने गीता, धम्मपद, जैन सूत्र, गोरख वाणी, कबीर बीजक और गुरु ग्रंथ साहिब जैसी अस्तित्वगत आवाजों को भी मुखर नहीं होने दिया।

हालांकि आधुनिक संविधान निर्माताओं ने अस्तित्व की आवाज की कोमलता को संविधान का हिस्सा नहीं बनने दिया। मनु की कठोरता से उपजे परंपरागत आरक्षण के जवाब में संवैधानिक आरक्षण की व्यवस्था भी की। परंतु क्योंकि मनु का विधान सदा से ही बेहद संरक्षित है, इसका मूल कारण यह है कि यह विधि-विधान सनातन धर्म और संस्कृति का चोला पहने हुए है।

अतः जो संवैधानिक व्यवस्थाएं इस देश की 90 फीसदी आबादी के लिए की गई थीं, वही 90 फीसदी आबादी इन संवैधानिक व्यवस्थाओं के बजाय मनु की सनातन संस्कृति के धार्मिक विधान के अनुष्ठानों में संलग्न है।

कैसी विडंबना है कि स्वतंत्र भारत के संविधान से अस्तित्व में आए न्यायालयों में मनु की मूर्ति आज भी वैसी ही कुटिल मुस्कान बिखेरती हुई संवैधानिक न्याय की अपेक्षा में आए लोगों को चिढ़ा रही है।

आजादी के बाद अस्तित्व में आई संवैधानिक व्यवस्था के कर्णधारों ने किसानों, मजदूरों और दलितों के लिए कुछ और ही उम्मीदें देखी थीं। तभी तो संविधान निर्माता ने संविधान की प्रस्तावना की शुरुआत में इन उम्मीदों और गर्व के साथ लिखा था, “हम भारत के लोग, भारत को एक संपूर्ण प्रभुत्व-संपन्न, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए…”

बंद हो कोर्ट में पूजा-पाठ: जस्टिस अभय ओका का बयान

पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट के जज जस्टिस अभय ओका ने कानूनी बिरादरी यानी वकीलों और जजों को सलाह दी थी कि उन्हें कोर्ट में पूजा-पाठ से बचना चाहिए। जस्टिस अभय ओका का कहना था कि कानूनी जगत में शामिल लोगों को किसी भी काम की शुरुआत संविधान की प्रति के सामने झुककर करनी चाहिए।

वहीं, जिस वक्त जस्टिस ओका वकीलों और जजों से पूजा-पाठ की जगह संविधान के सामने सिर झुकाने को कह रहे थे, उस वक्त सुप्रीम कोर्ट के एक अन्य जज, जस्टिस भूषण आर. गवई भी वहां मौजूद थे। जस्टिस गवई ने एक भवन के समारोह का नेतृत्व किया था। कार्यक्रम के दौरान जस्टिस गवई ने कहा, “संविधान को अपनाए हुए 75 साल हो चुके हैं, इसलिए हमें संविधान का सम्मान दिखाने और इसके मूल्यों को अपनाने के लिए इस प्रथा की शुरुआत करनी चाहिए।”

जस्टिस ओका ने खुलकर कहा, “अब हमें न्यायपालिका से जुड़े किसी भी कार्यक्रम के दौरान पूजा-पाठ या दीप जलाने जैसे अनुष्ठानों को बंद करना होगा। इसके बजाय हमें संविधान की प्रस्तावना रखनी चाहिए और किसी भी कार्यक्रम को शुरू करने के लिए उसके सामने झुकना चाहिए। कर्नाटक में अपने कार्यकाल के दौरान मैंने ऐसे धार्मिक अनुष्ठानों को रोकने की कोशिश की थी, लेकिन मैं इसे पूरी तरह से नहीं रोक पाया। हालांकि, मैं इसे किसी हद तक कम करने में कामयाब रहा।”

जयपुर हाईकोर्ट में मनु मूर्ति

जयपुर स्थित उच्च न्यायालय देश का अकेला ऐसा हाईकोर्ट है, जिसके परिसर में ‘मनुस्मृति’ लिखने वाले मनु की मूर्ति स्थापित है। यह बेहद दुखद है कि औरतों और दलितों के विरोधी तथा मानवीय समानता के दुश्मन मनु की मूर्ति कोर्ट में लगी हुई है, जबकि उसी कोर्ट के बाहर अंबेडकर की मूर्ति लगाई गई है, जो उपेक्षा का शिकार है।

गौरतलब है कि ‘मनुस्मृति’ में औरतों और शूद्रों के बारे में बेहद भेदभावपूर्ण बातें लिखी गई हैं। डॉ. भीमराव अंबेडकर ने भी कहा था कि ‘मनुस्मृति’ जाति की ऊंच-नीच वाली व्यवस्था को मजबूत करती है, इसलिए उन्होंने 25 दिसंबर 1927 को सरेआम ‘मनुस्मृति’ को जलाने की हिम्मत दिखाई थी।

साल 1989 में न्यायिक सेवा संगठन के अध्यक्ष पदम कुमार जैन ने राजस्थान हाईकोर्ट के कार्यवाहक चीफ जस्टिस एम.एम. कासलीवाल की इजाजत से मनु की इस बड़ी मूर्ति को स्थापित करवाया था। तब राज्यभर में खूब हंगामा हुआ था और राजस्थान हाईकोर्ट की प्रशासनिक पीठ ने इसे हटाने के लिए रजिस्ट्रार के माध्यम से न्यायिक सेवा संगठन को निर्देश दिया था। लेकिन तभी हिंदू महासभा की ओर से आचार्य धर्मेंद्र ने मनु की मूर्ति हटाने के खिलाफ हाईकोर्ट में स्टे ऑर्डर की याचिका दायर कर दी थी, जिसमें कहा गया था कि एक बार लगाई गई मूर्ति को हटाया नहीं जा सकता। तब से लेकर आज तक इस मामले की केवल दो बार सुनवाई हुई है। जब भी सुनवाई होती है, कोर्ट में टकराव का माहौल बन जाता है और मामला स्थगित कर दिया जाता है।

मनु मूर्ति के विरोधियों का कहना है कि रोज-रोज चिढ़ाने वाले मनु का हम कुछ नहीं कर पा रहे हैं, क्योंकि मनुवाद फिर से बेहद मजबूत रूप में उभर रहा है। इसका कारण यह है कि दलित-बहुजनों को अब मनु, मनुस्मृति, मनु मूर्ति और मनुवाद से कोई तकलीफ नहीं है। अब वे त्योहारों की तरह रस्म के तौर पर ‘जय भीम’ और ‘जय-जय भीम’ चिल्लाते हैं। उनके लिए अंबेडकर का दर्शन महज प्रदर्शन की चीज बनकर रह गया है।

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