प्रोफेसर राहुल सिंह (अध्यक्ष) उत्तर प्रदेश वाणिज्य परिषद
बाबतपुर (वाराणसी) : ग़ाज़ा की धरती इस समय इतिहास की सबसे भयावह मानवीय त्रासदियों में से एक का गवाह बन रही है। ऐसी त्रासदी, जहाँ भूख अब संकट नहीं, योजनाबद्ध नरसंहार का औज़ार बन चुकी है। बच्चों की पसलियाँ चमड़ी से बाहर झाँक रही हैं, माताएँ अपने नवजातों को दूध नहीं पिला पा रही हैं, और डॉक्टर खुद चक्कर खाकर गिर रहे हैं क्योंकि पेट में कुछ नहीं है। यह प्राकृतिक आपदा नहीं, बल्कि ऐसी सत्ता की नीति है, जो भोजन और पानी जैसी मूलभूत ज़रूरतों को युद्ध की रणनीति में बदल चुकी है। ग़ाज़ा में हो रही ये मौतें केवल स्थानीय जनसंख्या की नहीं, बल्कि पूरी मानवता की चेतना की मौत हैं।
ग़ाज़ा इस समय ऐसे दौर से गुज़र रहा है, जहाँ भूख अब सिर्फ मानवीय त्रासदी नहीं, बल्कि संगठित युद्ध नीति बन गई है। यह ऐसा नरसंहार है जो गोली या बम से नहीं, बल्कि आटे, दूध, पानी और दवाओं की अनुपलब्धता से अंजाम दिया जा रहा है। एक-एक बच्चे की पसलियाँ उभर आई हैं, माँओं की गोदें सूख चुकी हैं, और अस्पतालों के डॉक्टर स्वयं भूख से चक्कर खाकर गिर रहे हैं। यह कोई अकाल नहीं है जिसे प्रकृति ने भेजा हो, बल्कि यह सुनियोजित नरसंहार है।
ग़ाज़ा में चार महीने से भोजन, पानी, बिजली और दवा जैसी बुनियादी ज़रूरतों की आपूर्ति लगभग बंद कर दी गई है। केवल सीमित मात्रा में राहत सामग्री ही अंदर जाने दी जाती है, और वह भी उन इलाकों में जहाँ पहुँचने के लिए नागरिकों को जान जोखिम में डालनी पड़ती है। राहत केंद्रों को सैन्य ज़ोन में स्थापित करना केवल मानवीय सहायता की प्रक्रिया को बाधित करने की कोशिश नहीं, बल्कि भूख को प्रतिरोध तोड़ने का औज़ार बनाने की मंशा भी है। यह पहली बार नहीं है जब भूख को युद्ध की रणनीति के तौर पर इस्तेमाल किया गया है। लेकिन ग़ाज़ा में यह नीति अब इस हद तक पहुँच चुकी है कि उसे ‘जेनोसाइड’ कहा जाना ही उचित है। मासूम बच्चों की तस्वीरें, जिनकी पसलियाँ उनकी पतली चमड़ी से बाहर झाँक रही थीं, समूची व्यवस्था की विफलता का दस्तावेज़ है।
ग़ाज़ा के अस्पताल अब जीवन देने वाली जगहें नहीं, बल्कि मौत का सर्टिफिकेट जारी करने के केंद्र बन चुके हैं। डॉक्टर खुद भूख से बेहाल हैं, वे चक्कर खा रहे हैं, उनकी चेतना डगमगा रही है। बच्चों के शरीर ऐसे हैं कि साँस लेना तक कठिन हो गया है। इम्यून सिस्टम ध्वस्त हो चुका है। एक डॉक्टर ने बताया कि उसके परिवार को दो किलो आटा मिला था, जो केवल डेढ़ दिन चल सकता है। अब सोचिए कि डॉक्टर के हालात ऐसे हैं, तो आम जनता किस हाल में होगी? बच्चों को अब पाउडर दूध तक नसीब नहीं। जब मिलता है, तो वह इतना महँगा होता है कि उसे चावल के पानी से मिलाकर खींचा जाता है। लेकिन वह भी नाकाफ़ी। फलस्वरूप, बच्चों का वज़न कम होता जा रहा है, और अंततः वे दम तोड़ दे रहे हैं।
ग़ाज़ा में अंतर्राष्ट्रीय कानूनों का खुला उल्लंघन हो रहा है, लेकिन अंतर्राष्ट्रीय संस्थाएं ख़ामोश हैं। 1949 का जिनेवा समझौता, विशेष रूप से चौथा जिनेवा कन्वेंशन, युद्ध की स्थिति में नागरिकों की सुरक्षा को सुनिश्चित करता है। इसका अनुच्छेद 55 और 59 स्पष्ट रूप से कहता है कि कब्जे वाले क्षेत्रों में रहने वाले लोगों को पर्याप्त मात्रा में भोजन, चिकित्सा और अन्य आवश्यक सेवाएं देना कब्जाधारी शक्ति की ज़िम्मेदारी होती है। लेकिन ग़ाज़ा में भोजन और दवा की आपूर्ति पर लगाए गए प्रतिबंध न केवल इस समझौते का उल्लंघन हैं, बल्कि जानबूझकर नागरिकों को भूखा मारने का संगठित प्रयास हैं, जिसे अंतरराष्ट्रीय कानून ‘Collective Punishment’ यानी सामूहिक दंड मानता है, जो स्पष्ट रूप से प्रतिबंधित है।
संयुक्त राष्ट्र के मानवाधिकार घोषणापत्र (UDHR) 1948, का अनुच्छेद 25 हर व्यक्ति को भोजन, आवास, स्वास्थ्य सेवाएं और जीवन के लिए आवश्यक अन्य संसाधनों का अधिकार देता है। इसके अतिरिक्त, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकारों पर अंतरराष्ट्रीय समझौता (ICESCR) भी इस अधिकार को सुनिश्चित करता है कि हर व्यक्ति को पर्याप्त जीवन स्तर मिले, जिसमें पर्याप्त भोजन केंद्रीय अधिकार है। ग़ाज़ा में जब लोग आटा, दूध और दवाओं के लिए तड़पते हुए मर रहे हैं, तो यह अधिकार केवल कुचला नहीं जा रहा, बल्कि उसे राजनीतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल भी किया जा रहा है।
इसके अलावा अंतरराष्ट्रीय आपराधिक न्यायालय (ICC) की रोम संविधि, के अनुच्छेद 7 और 8 के अंतर्गत जानबूझकर भुखमरी फैलाना, जब नागरिकों को लक्षित किया जाए, मानवता के विरुद्ध अपराध और युद्ध अपराध दोनों के दायरे में आता है। ग़ाज़ा की परिस्थितियों में जहाँ भोजन की आपूर्ति रोकी गई है, किसानों की ज़मीनें तबाह की गई हैं, और राहत सामग्री तक पहुंचाने वालों को गोली मारी जा रही है, ये सभी कार्य अंतरराष्ट्रीय न्याय प्रणाली में अभियोजन के योग्य हैं। संयुक्त राष्ट्र की अनेक एजेंसियाँ और स्वयंसेवी संगठन यह स्पष्ट कर चुके हैं कि यह स्थिति मानवीय संकट नहीं, बल्कि मानव जनित त्रासदी है, जिसमें अंतरराष्ट्रीय कानूनों का खुला उल्लंघन हो रहा है और दुनिया इसे मूकदर्शक बनकर देख रही है।
इज़रायली प्रशासन दावा करता है कि सीमाएँ खुली हैं और सहायता पहुँचाई जा सकती है। लेकिन संयुक्त राष्ट्र साफ़ कहता है कि ग़ाज़ा में क्या, कितना और किसके ज़रिए पहुँचेगा, इसका पूरा नियंत्रण इज़रायल के पास है। ग़ाज़ा में राहत सामग्री लेकर पहुँचना ‘ऑब्सटेकल कोर्स’ से गुजरने जैसा है, जिसमें सैन्य बाधाएँ, सड़क की तबाही, हथियारबंद समूह और प्रशासनिक अड़चनें शामिल हैं।
राहत सामग्री पर सबसे पहले हमला भूख से बेहाल नागरिक ही करते हैं, क्योंकि उनके पास कोई और रास्ता नहीं बचा है। इस अफरा-तफरी में अब तक 1000 से अधिक लोग राहत की कतारों में गोली खाकर मारे जा चुके हैं। और जो राहत केंद्र अमेरिकी निजी सुरक्षा एजेंसियाँ चला रही हैं, वहाँ ‘पहले आओ, पहले पाओ’ की नीति है, यानी जिसे ताक़त है, वही जिंदा रहेगा।
जब युद्ध केवल सीमाओं या सुरक्षा का नहीं, बल्कि मुनाफे और प्रभुत्व का हो, तब सबसे पहले निशाना बनती है जनता। भोजन और पानी जैसे बुनियादी अधिकार भी बाज़ार और सैन्य रणनीति के हवाले कर दिए जाते हैं। इस युद्ध में कोई ‘कोलैटरल डैमेज’ नहीं होता, हर मौत सोची-समझी योजना का हिस्सा होती है। ग़ाज़ा की फैक्ट्रियाँ, खेत, और अनाज भंडार जान-बूझकर तबाह किए गए हैं, ताकि अंदरूनी उत्पादन की क्षमता भी समाप्त हो जाए। गर्मी के इस मौसम में न तो पीने का पानी है, न छाया, न बिजली। यह ऐसा युद्ध है जिसमें दुश्मन की थाली को खाली कर देने की योजना बनाई गई है, और यह योजना पूरी दुनिया की आँखों के सामने चल रही है।
पत्रकार जो इस त्रासदी को कवर कर रहे थे, अब स्वयं भूख से मरने की कगार पर हैं। एएफ़पी के पत्रकारों ने कहा कि उन्होंने कभी यह नहीं देखा कि उनके किसी सहयोगी को भूख से मरते देखना पड़े। अब वे देख रहे हैं, लेकिन कह नहीं पा रहे, क्योंकि बोलने की ताक़त भी भूख ने छीन ली है। अंतरराष्ट्रीय मीडिया का बड़ा हिस्सा इस समय चुप है, या फिर तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत कर रहा है। वैश्विक सत्ता संरचना में जिन देशों को इज़रायल की सैन्य नीति से असहमति होनी चाहिए, वे भी या तो खामोश हैं या सतही बयान देकर अपना पल्ला झाड़ रहे हैं।
यह युद्ध है-लेकिन किसके ख़िलाफ़?
यह युद्ध किसी हथियारबंद संगठन के विरुद्ध नहीं चल रहा, यह युद्ध एक विचार के विरुद्ध है; उस विचार के जो अपने लिए ज़मीन, पानी, घर और भोजन चाहता है। यह युद्ध उन बच्चों के विरुद्ध है जो पैदा होने से पहले ही तय कर दिए गए हैं कि उन्हें जीने का हक़ नहीं। यह युद्ध उन माँओं के खिलाफ़ है जिनकी कोख अब ‘खाली’ हो रही है, भूख और बारूद से। और सबसे दुखद यह है कि यह युद्ध वैश्विक दादाओं के समर्थन से चल रहा है। वह समर्थन जो चुप्पी के रूप में आता है, जो हथियारों की आपूर्ति के रूप में आता है, और जो यह मानने से इनकार करता है कि ग़ाज़ा में मानवता की हत्या हो रही है।
ग़ाज़ा में हो रही मौतें प्राकृतिक नहीं हैं। वे सूखे या भूकंप से नहीं, बल्कि ऐसी व्यवस्था से हो रही हैं जो भूख को नियंत्रण का हथियार मानती है। जब किसी दो महीने की बच्ची के शरीर की सारी हड्डियाँ गिनी जा सकती हैं, तो वह पूरी मानव सभ्यता की विफलता है।
हम यह नहीं कह सकते कि हमें पता नहीं था। तस्वीरें हैं, रिपोर्टें हैं, आँकड़े हैं, लेकिन शायद संवेदना नहीं बची। यह लेख चेतावनी नहीं, बल्कि इल्ज़ाम है-हम सब पर-कि हम ऐसे दौर में जी रहे हैं जहाँ भूख सबसे सस्ता हथियार बन चुका है, और सबसे कीमती चीज़-चुप्पी। उन बच्चों की आँखें हमें देख रही हैं। सवाल पूछ रही हैं कि हम क्यों चुप हैं? अगर जवाब नहीं है, तो कम से कम उनकी भूख को देखकर कुछ कहें, कुछ करें।
